MHD - 02: आधुनिक हिंदी काव्य, IGNOU MHD
IGNOU MHD 02 Free Solved Assignment 2020-2021
(1) निम्नलिखित प्रत्येक काव्यांश की सप्रसंग व्याख्या कीजिए: 12×3=36
(क) जीवन की जटिल समस्या
है बढ़ी जटा सी कैसी
उड़ती है धूल ह्रदय में
किसकी विभूति है ऐसी?
जो घनीभूत पीड़ा थी
मस्तक में स्मृति सी छायी
दुर्दिन में आंसू बनकर
वह आज बरसने आयी।
उत्तर:- संकेत:- जीवन की जटिल समस्या .................. वह आज बरसने आयी।
प्रसंग:- प्रस्तुत पंक्तियां हमारी पाठ्यपुस्तक ''आधुनिक काव्य विविधा'' के 'आंसू' काव्यांश से लिया गया है। इसके रचयिता ''जयशंकर प्रसाद'' जी है। प्रसाद जी का जितना महत्व एक कवि के रूप में रहा है, एक गद्दकार के रूप में भी उतना ही महत्व रहा है। प्रसाद जी अपने ही जीवन के उत्पीड़ित पीड़ा को कविता के द्वारा लोगों के समक्ष उजागर किए हैं।
संदर्भ:- कवि के हृदय में सृजन का दर्द और पीड़ा है यह पीड़ा उनके काव्य में दृष्टिगोचर होती है कवि सागर को मानव हृदय की जटिलताओं का प्रतीक मानते हैं।
व्याख्या:- कवि निजी जीवन की वेदना को व्यापक रूप देते हुए आंतरिक तनाव को छिपाते नहीं है। कवि के हृदय में निजी जीवन के वियोग की अनुभूति है। अतीत की कोई सुखद अनुभूति कवि के मन में खिन्नता पैदा करती है। कवि की चिंता है कि जीवन की जटिल समस्याओं की उलझन में उदात और कोमल भाव खो गए हैं। कवि प्रेम और करुणा जैसे भाव को उच्चतर महत्व देते हैं। कवी अपनी प्रेम वेदना से पृथ्वी को प्रकाशित करना चाहते हैं।
उनके हृदय में करुणा के भाव और सृजन की पीड़ा है। कवि सागर को मानव हृदय की जटिलताओं का प्रतीक मानते हैं। मनुष्य का जीवन जटिलताओं से मुक्त होना चाहता है, लेकिन मुक्त नहीं हो पाता है। जटा में जिस तरह केश एक दूसरे से उलझ जाते हैं और गुंथ जाते हैं, उसी तरह मानवीय भाव भी जीवन की जटिलताओं के बीच उलझे हुए प्रतीत होते हैं। राग - विराग से परे होकर ही मानव दिव्यता को प्राप्त करता है।
कवि के जीवन की कोई घनीभूत पीड़ा फंतासी बनकर उनके मस्तिष्क मे छाई रहती है। वही फंतासी सृजन में नई अनुभूति के रूप में प्रस्तावित होती है। कवि में वेदना की आकुलता और तड़प है। यह आकुलता किसी गहन अंधकार के क्षण में भावहीन दशा में कवि के हृदय में उपजति है। कवि के हृदय में दर्द और पीड़ा है, जो आंसू बनकर कवि की आंखों से बरसने वाली है। अर्थात कवि के हृदय में वियोग की पीड़ा है जो बीते समय की याद बनकर उनके हृदय में छाई रहती है, वही दुख, दर्द, पीड़ा कवि के हृदय रूपी मन में आज आंसू बनकर बरसने वाली है।
आंसू ही हमारे भावों की उपज है। मनुष्य का ह्रदय भाव के बिना अधूरा है। भाव ही मानव को निराशा से जूझने की शक्ति प्रदान करते हैं। सृजन अनुभव की उपज है, इसलिए आंसू भाव के उत्तम सृजन है। कवि अपने जीवन की घोर निराशा के क्षणों में भी आशा को नहीं खोते हैं। इस संघर्ष के बल पर ही वह लोगों को सुंदर संदेश देना चाहते हैं।
विशेष:-
(i) कवि के मानव हृदय की जटिलताओं की तुलना सागर से की है।
(ii) "आंसू" के छंद में प्रवाह है। भावों से छंद का तार जुड़ जाने से यह प्रवाह आया है।
(iii) "आंसू" कविता के छंद प्रयोग में तराश और दीप्ति की झलक है।
(iv) पीड़ा की गहराई को व्यक्त करने के लिए "घनीभूत" शब्द का प्रयोग हुआ है
(v) "आंसू" कविता में भाषा लाक्षणिक और चित्रात्मक है।
(ख) व्याख्या:- यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो।
यह जन है: गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गायेगा?
पनडुब्बा: ये मोती सच्चे फिर कौन कृति लायेगा।
यह समिधा: ऐसी आग हठीला बिरला सुलगायेगा।
यह अद्वितीय: यह मेरा: यह मैं स्वयं विसर्जित
यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर इसको भी पंक्ति को दे दो।
उत्तर:- यह दीप अकेला स्नेह ................... पर इसे भी पंक्ति को दे दो।
प्रसंग:-
प्रस्तुत पद्यांश प्रयोगवाद के प्रणेता सच्चिदानंद हीरानंद वात्सयायन 'अज्ञेय' द्वारा रचित कविता 'यह दीप अकेला' से उद्धृत है।
संदर्भ:-
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि 'अज्ञेय' जी सामाजिकता को स्वीकार करते हुए सर्जक व्यक्तित्व का अकेलापन और आदितीयता को बचाए रखने की बात कहते हैं। वह अपनी सुरक्षित निजता से ही समाज को पहचानने की कोशिश करते हैं।
व्याख्या:-
कवि ने कहा है कि यह दीप जो अकेले हैं किंतु स्नेह गर्व (स्वाभिमान) से भरा हुआ है, मदमस्त है, उसे भी अन्य दीप मालाओं में शामिल कर दो। अर्थात 'अज्ञेय' जी उस अकेले व्यक्ति को जो दीप की भांति स्नेह और स्वाभिमान से परिपूर्ण है। उसे समाज को समर्पित करने की बात करते हैं, किंतु वे यह भी कहते हैं कि सामाजिकता के बाद भी अदितीयता उसका अपनापन, विशिष्टता, वैयक्विता को विसर्जित अर्थात समाप्त ना होने दो सामूहिक जीवन के बीच कवि समाज का महत्व वहीं तक स्वीकारता है जहां तक वह व्यक्ति के विकास में सहायक होता है।
सामूहिक जीवन के बीच व्यक्ति की निजी असीमित को सुरक्षित रखने की अभिलाषा करते हैं, क्योंकि वह अकेला व्यक्ति जिस अमर गीत को गाता है, उसे फिर कौन गा सकेगा। पानी में डूबकर अथादृ सागर में गोते लगाकर सच्चे मोती को कौन लाएगा। वह अपने रचनाओं कृतियों द्वारा समिधा रूपी जिस आग को व्यक्ति के अंदर सुलगता है उसे विरले ही कोई सुलगा सकते हैं।
अतः इस अकेले दीपक रूपी विशिष्ठ व्यक्तित्व को सामाजिक बनाकर उसकी वैयक्तिकता को समाप्त न होने दो उसे पंक्ति रूपी समाज में शामिल करो, किंतु उसके आदितीयता और वैयक्तियता को बने रहने दो। व्यक्ति को कवि समाज के सारभूत रूप में प्रस्तुत करता है क्योंकि व्यक्ति समाज से निरपेक्ष और आत्मा सुरक्षित रहे।
विशेष:-
(i) अज्ञेय जी ने दीपक और पंक्ति को क्रमश: व्यक्ति और समाज का प्रतीक चुनकर एक नया प्रयोग किया है।
(ii) नदी केंद्रीय कविता में भी अज्ञेय जी ने इसी विचारधारा को सामने रखा है।
(iii) सामाजिकता और वैयक्तिकता का द्वंद अज्ञेय जी की कविता का बहुत जरुरी संदर्भ है।
(iv) कवि ने व्यक्ति को समष्टि के साथ जोड़ने की बात की है, क्योंकि समष्टि के अभाव मे व्यष्टि महत्वहीन है।
(v) अकेला दीपक जो स्नेह भरा, गर्व भरा है। सृजनात्मक अदितीयता अर्थात वैयक्यिकता का प्रतीक है। कवि पंक्ति को अर्थात सामाजिकता को देना चाहते हैं, पर उसके अकेलेपन का जीवंत स्वाधीन रखकर।
(ग) व्याख्या:- एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है।
वह सिर्फ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूं-
यह तीसरा आदमी कौन है?
मेरे देश की संसद मौन है।
उत्तर:- संकेत:- एक आदमी ..................... संसद मौन है।
प्रसंग:-
प्रस्तुत पंक्तियों हमारी पाठ्यपुस्तक "आधुनिक काव्य विविधा" के "रोटी और संसद" काव्यांश से लिया गया है। इसके कवि सुदामा पांडे 'धूमिल' जी है। धूमिल जी की कविताओं के आक्रोश के मूल में सर्वत्र शोषण उत्पीड़न के विरुद्ध माननीय मुक्ति का पक्ष सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जा सकता है।
संदर्भ:-
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने देश की राजनीतिक व्यवस्था के ऊपर करारा व्यंग्य किया है। कवि ने शब्द व्यवस्था से लेकर देश की प्रजातांत्रिक संसदीय व्यवस्था प्रशासनिक एवं न्याय व्यवस्था पर व्यंग्य किया है।
व्याख्या:-
" रोटी और संसद" धूमिल कवि की एक छोटी सी कविता है किंतु यह हमारे सामने एक बड़ा और महत्वपूर्ण प्रश्न उठाती है। धूमिल कवि का कहना है कि इस देश में एक आदमी रोटी बेलता है। एक आदमी रोटी खाता है। एक तीसरा आदमी भी है जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है। जो केवल रोटी से खेलता है। इस तीसरे आदमी को दंडित करना होगा, और यह तीसरा आदमी हमारे देश की राजनीतिक व्यवस्था है। राजनीतिक व्यवस्था जनता की रोटी से खेलती है। रोटी जीने की प्रथमिक जरूरत है। गंदी राजनीति जनता की इस मूलभूत जरूरत को भी नजरअंदाज करती है। इसलिए धूमिल ने लोक-वेदना को अपनी कविता का विषय बनाया है।
वास्तव में धूमिल का काव्य समस्याओं का काव्यात्मक लेखा है, जिसमें आदमी, रोटी, समाज परिवार तथा देश की विशेषताओं को प्रस्तुत करता हुआ वह आंसू और हाय की स्थिति तक पहुंचता है और व्यंग्य करता हुआ 'आग' की प्रेरणा देता है। और यह निश्चित है कि जागरूक निगाहों की एक बढ़ती फौज उस तीसरे आदमी को लगातार घूरे जा रही है। और निगाहों की फौज बढ़ती जा रही है। इसी को धूमिल की कविता की सबसे बड़ी उपलब्धि कहा जा सकता है।
विशेष:-
(i) 'रोटी और संसद' कविता में देश की राजनीतिक व्यवस्था पर व्यंग्य किया गया है।
(ii) कवि ने लोक - वेदना को अपनी कविता का विषय बनाया है।
(iii) 'रोटी और संसद' शीर्षक कविता सपाटबयानी की सशक्त कविता कही जा सकती है।
(iv) धूमिल के व्यंग्य में तीखेपन के साथ-साथ बौखलाहट जरा भी नहीं है।
(v) सामान्य बोलचाल की चालू भाषा और बिना लाग लपेट के कहने का कौशल धूमिल की काव्य शैली का प्रमुख आकर्षण है।
(vi) धूमिल ने इस देश की संसद, समाजवाद, अजादी, चुनाव, नेता, और राजनीति सभी पर पैना व्यंग्य किया है।
(2) निम्नलिखित प्रत्येक प्रश्न का उत्तर लगभग 800 शब्दों में दीजिए! 16×4=64
(क) महादेवी वर्मा की काव्य संवेदना की प्रमुख विशिष्टताओं का उल्लेख कीजिए! (16)
उत्तर:- महादेवी की काव्य संवेदना:-
छायावादी काव्य एक नई संवेदनशील का काव्य था। महादेवी वर्मा का कृतित्व भी उनकी बहुमुखी प्रतिभा का परिचायक है। महादेवी वर्मा भी छायावादी काव्य-धारा की एक प्रमुख स्तंभ है। महादेवी वर्मा के संदर्भ में उनका व्यक्तित्व अपनी इंद्रधनुषी आभा लिए उनके काव्य लोक में उपस्थित होता है। उनकी जीवन दृष्टि मानवीय गुणों से संपृक्त और संवेदनाओ से अनुप्राणित है। उनमें उदात्त और गोर वयम भाव मिलते हैं, और समस्त प्राणी जगत के प्रति उनकी करुणा उमड़ पड़ती है।
महादेवी के काव्य उनकी विशुद्ध निजी अनुभूतियों का काव्य है। इनकी निजी अनुभूतियों में भी वेदना, करुणा और अकेलेपन की पीड़ा ही अधिक व्यक्त हुई है। अपनी पीड़ा वेदना और करुणा को वे अधिकांशत: प्रकृति और उसके पीछे छिपी हुई सत्ता के माध्यम से व्यक्त करती है। अतः उनके काव्य में रहस्य और जिज्ञासा का भाव अधिक व्यक्त हुआ है। जो इनके अंतर्मुखी व्यक्तित्व को ही उजागर करती है। वैयक्तिक चेतना की प्रधानता, लौकिक प्रेम की अपेक्षा अलौकिक और आध्यात्मिक प्रेम की प्रधानता, सजीव प्रकृति - चित्रण, भाषा एवं शैली की कलात्मकता का विशेष आग्रह छायावादी काव्य-धारा की मूलभूत विशेषता है।
महादेवी के काव्य में मुक्ति की उड़ान स्पष्ट, असीम और अनंत है। मुक्ति की आकांक्षा भाषा के स्तर पर भी प्रकट होती है और शिल्प के स्तर पर भी। महादेवी वर्मा के गीत काव्य में काव्य संवेदना का सहज प्रत्यक्षीकरण हुआ है। महादेवी जी अपने काव्य में व्यथा, वेदना और रहस्य भावना को ही उजागर किया है।
महादेवी वर्मा का काव्य संवेदना इन चार स्तंभों पर अवस्थित है- वेदानुभती, रहस्य भावना, प्रणय भाव और सौंदर्यानुभूति। महादेवी की काव्य संवेदना की निर्मिति और विकास में उनके व्यक्तिगत एकाकीपन का भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है, जिसकी वेदना विभिन्न आयामों में उनके काव्य में प्रकट हुई है। वेदना के विविध रूप की उपस्थिति उनके काव्य जगत की विशिष्टता है।
(i) महादेवी की कविता में वेदना भाव:-
महादेवी वर्मा की कविता में दुख: और करुणा का भाव प्रधान है। वेदना के विभिन्न रूपों की उपस्थिति उनके काव्य की एक प्रमुख विशेषता है। वह यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं करती कि वह नीर मरी दुख: की बदली है। उनके एक गीत की पंक्ति है -
'शलभ मैं शापमय वर हूं।
किसी का दीप निष्ठुर हूँ' !!
महादेवी के पूरे काव्य पटल पर इस तरह के असंख्य बिंब बिखरे पड़े हैं, जिनसे उनके अंतस में पलती अथाह पीड़ा का स्पष्ट संकेत मिलता है। एक विचित्र का सूनापन, एक विलक्षण एकाकीपन बार-बार उनकी कविताओं में उमड़ता दिखाई देता है।
पीड़ा का साम्राज्य ही उनके काव्य संसार की सौगात है- "साम्राज्य मुझे दे डाला/ उस चितवन में पीड़ा का" विफल प्रेम का यह रूढ़न महादेवी के काव्य की अंतवस्तु है, यह पीड़ा ही कवित्री की वेदना है-
"मेरा मदिरा मधुवाली, आकर सारी ढलका दी।
हंसकर पीड़ा से भर दी, छोटी जीवन की प्याली" !!
महादेवी की वेदना अनुभूतिजन्य होने के कारण उनकी कविताओं में इसकी अभिव्यक्ति भी अत्यंत सहज ढंग से हुई है।
महादेवी अंतमुर्खी कवित्री है उनके अंतमुर्खी चिंतन में जहां विरह - मिलन तृप्ति और अतृप्ति, आशा - निराशा की हल्की लहरिया है, वहां करुणा और मानवता की अनगिनत ध्वनियां भी मुखर हो उठी है। महादेवी की करुणा व्यक्तिपरक अथवा आत्मगत ही नहीं है, बल्कि बहिमुर्खी एवं समाजपरक भी है। उनकी वेदना प्राणी - मात्रा के प्रति करुणा का रूप धारण करती है। उनके काव्य लोक में वेदना की परिणति आनंद में होती है। महादेवी ने अपने काव्य में दुख: और वेदना का वरण तो स्वयं ही किया है- हमारे असंख्य सुख हमें चाहे मनुष्यता की पहली सीढ़ी तक भी न पहुंचा सके किंतु हमारा एक बूंद आंसू भी जीवन को अधिक मधुर बनाए बिना नहीं गिर सकता। महादेवी वर्मा अपनी कविताओं के माध्यम से दु:खी जनों में नई आशा अमल आनंद का संचार करती है।
(ii) महादेवी की कविता में रहस्य भावना:-
महादेवी की कविता में रहस्य भावना विद्यमान थी। महादेवी और रहस्यवाद एक - दूसरे के पर्याय हैं। महादेवी स्वयं कहती है- हमारे मूर्त और अमूर्त जगत एक - दूसरे से इस प्रकार मिले हुए हैं कि एक यथार्थदर्शी दूसरे को रहस्यध्दष्टा बनकर की पूर्णता पता है। महादेवी वर्मा एक रहस्यवादी कवि के रूप में केवल अध्दैतवाद से बंध कर नहीं चलती। वह प्रियतम के साथ एक आकर होने की इच्छा व्यक्त करती है-
"जो तुम आ जाते एक बार, 'कितनी करुणा कितने संदेश",!!
"पथ में बिछ जाते बन पराग, 'गाता प्राणों का तार - तार"!! "अनुराग भरा उन्माद राग, 'आंसू लेते वे पग पखार" !!
इस प्रकार महादेवी वर्मा में रहस्यानुभूति के विविध रूपों के दर्शन होते हैं, कहीं मिलन की इच्छा, स्मरण, स्वपन और साक्षात मिलन तो कहीं विरह का अनिवार्य चरण भी आता है। महादेवी की कविता में विरह की कमी नहीं बल्कि उनका समूचा काव्य ही विरह के रंग में रंगा हुआ है। महादेवी की रहस्यवादी अनुभूतियों में मुक्ति की तड़पन देश और जाति का ही नहीं स्वयं का भी है। उनकी रहस्यानुभूति उन्हें मानव समाज के अपेक्षित शोषित वर्ग के कल्याण के प्रति भी सजग करती है।
महादेवी की कविताओं में रहस्यवाद की सृष्टि होती है। अज्ञात प्रिया से मिलनाकांक्षा, उससे न मिल पाने की वेदना को ही अपना मूल धन मान लेना, विरह में ही अपने को 'चीर' बनाए रखने का विश्वास आदि महादेवी को मीरा की तरह चीर विरहिनी का रूप प्रदान करते हैं। इन्हें चीर विरहणी बने रहने में ही संतोष प्राप्त होता है। कवियित्री कहती है दुख मेरे निकट जीवन का ऐसा काव्य है, जो सारे संसार को एक सूत्र में बांध रखने की क्षमता रखता है।
इस तरह महादेवी छायावादी रहस्यवाद की प्रतिनिधि हस्ताक्षर है। उनमें रहस्यानुभूति के प्रत्येक चरण की अभिव्यक्ति मिलती है। वह प्रकृति व्यापार में एक विराट सत्ता के दर्शन करती और उसके साथ रहस्यात्मक संबंध स्थापित करने को आतुर रहती है, किंतु उन्हें यथार्थ विरोधी रहस्यलोक में रहना कभी स्वीकार नहीं हुआ। वह अपनी संवेदनाओं को शोषित उपेक्षित वर्ग से जोड़कर चली। उन्होंने अपने युग की मुक्ति आकांक्षा को अपनी रहस्यनुभूति में स्थान दिया है।
(iii) महादेवी की कविता में प्रणय की अनुभूति:-
महादेवी की कविताओं में प्रणय की अनुभूति को महत्वपूर्ण स्थान मिला है। महादेवी के काव्य में प्रेम एक मूल भाव के रूप में प्रकट हुआ है, तथा उनका प्रेम अशरीरी है। यह करुणा से अप्लावित प्रेम है। अलौकिक दिव्य सत्ता के प्रति उनकी इस प्रणयानुभूति में दांपत्य प्रेम की झलक भी मिलती है, और लौकिक स्पर्श का आभास भी। महादेवी की कविता में व्यक्त प्रेम इसलिए भी विशिष्ट है, क्योंकि यह एक स्त्री की लेखनी से किया गया स्त्री मनोभावों का चित्रण है। उनमें स्त्रीयोचित लाज संकोच है तो अपने युग की नवजागृत नारी का अंह भी है। वह विरह की आग में तपती है तो संयोग की छाँह से भी स्वयं को दूर नहीं रखना चाहती।
इस प्रकार उन्होंने प्रणय की विविध स्थितियों का भरपूर आनंद लेते हुए अपनी कविताओं में इनका गहन चित्रण किया है। महादेवी ने प्रेम के मधुर रूप का चयन किया है। उनका प्रेम वासना - रहित प्रेम है, जिससे उदात्तता का भाव प्रचुरता से मिलता है। महादेवी का प्रेम प्राकृतिक सौंदर्य से अप्रभावित है। महादेवी ने प्रकृति के उपकरणों से जिस सौंदर्य के दर्शन किए, उसी से उनकी प्रणयानुभूति का उद्भव हुआ और विराट सौंदर्य के प्रति वह अपने प्रणयोदगार व्यक्त करती रही।
महादेवी की कविता में रहस्य भावना में ही हम उनकी प्रणयानुभूति के उनके चरणों को जान चुके हैं, क्योंकि उन्होंने उस दिव्य विराट पुरुष को अपना प्रेम ईस्ट मानकर उसके साथ माधुर्यमुल्क रगात्मक संबंध की स्थापना की है। इसलिए उनकी प्रेमानुभूति और रहस्यानुभूति दोनों एक - दूसरे में रच बस गई हैं। यह रगात्मक संबंध इतनी गहनता और प्रगाढ़ता लेकर उपस्थित होता है कि उसमें दांपत्य प्रेम का संकेत मिलता है, जो स्वयं में प्रणय की पूर्णता का ही घोतक है।
महादेवी भी यथार्थ मे मिलन न होने पर स्वपन के माध्यम से अनेक गीतों में अपनी प्रणयानुभूति को व्यक्त किया है उदाहरण-
"पलभर का वह स्वपन तुम्हारी!
युग - युग की पहचान बन गया"!!
इस प्रकार प्रणय छायावादी कविता का एक महत्वपूर्ण अंग है। महादेवी वर्मा के काव्य का यह एक मूल भाव है। महादेवी की कविता में प्रणव की सभी स्थितियों का चित्रण मिलता है। उनका प्रेम अशरीरी है, किंतु उनमें लौकिक प्रणय अभिव्यंजना हुई है। उनके प्रणय का ईस्ट वह दिव्य परम पुरुष है। उनके प्रेम का उद्गम प्रकृति में है। जिसके विराट सौंदर्य से प्रभावित होकर वह उसकी ओर आकर्षित होती है। वह आत्म समर्पण भी करती है, और अपने अभिमान को भी तिरोहित नहीं करती, महादेवी में स्त्री सुलभ लाज संकोच भी है और अपनी लघुता के प्रति गर्वानुभूति भी है। विरह की वेदना में तो वह आकंठ डूबी हुई है। उनकी कविताओं में प्रणव की अभिव्यंजना अनुपम और अनूठी है।
(iv) महादेवी की कविता में सौंदर्य चित्रण:-
महादेवी की कविताओं में सौंदर्य के विविध रूपों का मनोहर चित्रण हुआ है। सौंदर्य भावना भी छायावाद की एक प्रमुख प्रवृत्ति थी। महादेवी ने अपनी कविताओं में सौंदर्य के सूक्ष्म रूप को चित्रित किया है। उनकी सौंदर्य दृष्टि प्रकृति और मानव दोनों की ओर आकृष्ट होती है।
महादेवी ने सर्वत्र एक विराट सत्ता के दर्शन किए हैं। इसी अरूप पुरुष का दिव्य सौंदर्य उन्हें आकृष्ट होता है। और वे उसी के चीर सौंदर्य से प्रभावित होकर उसका गुणगान करती है। यह सौंदर्य उन्हें प्रकृति के प्रत्यक्ष उपकरण प्रत्येक उत्पादन में दिखाई देता है। इसलिए प्रकृति की सुषमा का वर्णन उनके संदर्भ में एक परम प्रिय के सौंदर्य का वर्णन ही है।
महादेवी क्योंकि प्रकृति के प्रत्येक रूप में उस दिव्य पुरुष के सौंदर्य के ही दर्शन करती है, इसलिए प्रकृति का कोई भी रूप उन्हें विचलित नहीं करता। महादेवी ने अपनी व्यक्तिगत प्रणयानुभूति और वेदनानुभूति की अभिव्यक्ति के लिए भी प्रकृति के सौंदर्य का सहाया लिया है। जो कुछ वह सीधे-सीधे अप्रत्यक्ष रूप में नहीं कर सकती थी। प्रकृति का आवरण ले लेने पर वही सब कुछ वह अत्यंत सहज, सरल ढंग से कह जाती है। उदाहरण-
"उड़ - उड़ कर जो धुला करेगी/ मेघों का नम मे अभिषेक!
अमिट रहेगी उसके अंचल/ में मेरी पीड़ा की रेख" !!
इस प्रकार हमने देखा कि महादेवी सौंदर्य की उदभाविका है। उनके काव्य में दिव्य पुरुष, प्रकृति, नारी के माध्यम से सौंदर्य को अभिव्यक्ति मिली है। उनकी कविताओं में चित्रित सौंदर्य स्थूल न होकर सूक्ष्म और आंतरिक सौंदर्य है।
(v) सारांश:-
महादेवी वर्मा छायावाद की एक प्रतिनिधि हस्ताक्षर कवियत्री है। महादेवी की कविताओं में वेदना भाव, रहस्य भावना, प्रणय की अनुभूति और सौंदर्य चित्रण की भावनाओं से परिपूर्ण है।
(ख) नागार्जुन के काव्य के रचना विधान के प्रमुख तत्वों तथा रूप प्रयोग पर प्रकाश डालिए! (16)
उत्तर:- नागार्जुन के काव्य का रचना - विधान:-
काव्य में रचना - विधान का अर्थ ही रचना का बनना है। जिस तरह कुम्हार मिट्टी के एक लोंदो को चाक पर रखकर घुमाते सवारते उसे एक बर्तन या आकृति में बदल देता है। उसी तरह एक कवि भी जीवन के टुकड़े को कविता में बदलता है। एक कवि मिट्टी की जगह शब्दों का इस्तेमाल करता है उसका मध्यम उसकी सामग्री शब्द ही है यानी भाषा। भाषा में ही कविता संभव होती है। भाषा तो सर्वोपरि है ही। नागार्जुन के रचना विधान का एक अनिवार्य तत्व है- व्यंग्य और नाटक! नागार्जुन ने भले - बिसरे काव्य रूपों को तो अपनाया ही उन्होंने नए-नए छंदों की भी रचना की। नागार्जुन के यहां रूपों की अद्भुत विविधता मिलती है, जितने कथ्य उतने रूप। इसलिए नागार्जुन की प्रत्येक कविता का रचना - विधान अलग होता है।
(I) रचना विधान के तत्व:-
(i) भाषा:-
रचना - विधान को समझने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि कविता जो भी है, वह अपने शब्दों में ही है। इसलिए शब्दों के आचरण को समझना ही सबसे महत्वपूर्ण है। जैसे नागार्जुन की एक कविता "अकाल और उसके बाद"-
"कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुत्तिया सोई उसके पास
चमक उठी घर भर की आंखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखे कई दिनों के बाद
"अकाल और उसके बाद" कविता में अकाल का भयानक चित्र है। कवि नागार्जुन रोजमर्रा के बिम्बो और शब्दों से अपनी कविता बनाते हैं। कविता की लय भी सुगम जानी पहचानी सी साधारण लोगों के जीवन के बारे में उन्हीं की भाषा में उन्हीं के जीवन प्रसंगों का उपयोग किए हैं। कई दिनों तक चूल्हा रोया- यानी कई दिनों तक चूल्हा जला ही नहीं, क्योंकि अन्न था ही नहीं। चक्की रही उदास- चक्की में कुछ पिसा ही नहीं, क्योंकि दाने थे ही नहीं।
कई दिनों तक कानी कुत्तिया उसके पास इसका मतलब- चूल्हा-चक्की खाली पड़ी थी तो कुत्तिया वहां आकर सो गई। लेकिन कानी कुत्तिया क्यों? सिर्फ कुत्तिया क्यों नहीं? क्या इसलिए कि सिर्फ कुत्तिया रखने से छंद टूटता? नहीं! इसलिए कि यह एक गरीब परिवार है जहां की कुत्तिया भी कानी है। कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त- यानी छिपकलियों को खाने को कीड़े नहीं मिले क्योंकि बत्ती जली नहीं। यह संग्राम है- अन्न के लिए भूख की लड़ाई। भूख ही सबसे बड़ा युद्ध है।
अब दूसरा बंद जो पहले बंद की लय से भिन्न है। पहले बंद की लय धीमी है, सुस्त क्योंकि अन्न नहीं। दूसरे में तेज निकलती हुई, क्योंकि दाने आ गए हैं। आंगन में धुआं उठने से अकाल ने मानो आदमी के अस्तित्व को ही समाप्त कर दिया है। अतः आदमी का होना अन्न के होने पर निर्भर है। कवि ने गृहस्थ जीवन के संपूर्ण अभाव की कहानी कह दी है। आंगन में धुआं उठने का मतलब है कि खाना पकाया जा रहा है। अकाल पीड़ितों के लिए चूल्हा जलाना एक चमत्कारिक घटना हो जाती है।
अन्न के दाने का महत्व कितना बड़ा होता है, यह अकाल मे तबाह लोग ही जान सकते हैं। किसान केवल मनुष्य के लिए ही नहीं संपूर्ण सृष्टि के लिए महत्वपूर्ण है। उसके श्रम के बिना कुत्ते और चूहे भी अपना पेट नहीं भर सकते हैं। कवि नागार्जुन अपने कौशल से शब्दों और भाषा के उपयोग से दोनों स्थितियों का बोध कराते हैं। इस तरह कविता भी स्थिति या दिशा - विशेष का अनुभव कराती है, वही रचना विधान सफल है।
नागार्जुन एक कविता में कहते हैं- आंचलिक बोलियों का मिक्सचर/ कानों की इन कटोरीयो में भरकर लौटा। तो नागार्जुन की भाषा भी तरह-तरह की बोलियों का 'मिक्सचर' या मिश्रण है। इन पंक्तियों में-
"तैरती रही आरण्यक छवियाँ सुनी निगाहों में लेकिन वह तो अब तक अलक्षित हो चुका था। जा चुका था, गहरे निबिड़ अरण्या की अतल झील के अंदर........ स्टार्ट हुई हमारी जीप
बैलाडीला वाली उसी सड़क पर।
यहां आरण्यक अलक्षित जैसे तत्सम शब्दों के साथ उर्दू का प्रचलित 'निगाह' भी है और अंग्रेजी का 'स्टार्ट' भी। नागार्जुन कहते हैं- यह बातें अपनी पूंजी, यही अपने औजार, यही अपने साधन, यही अपने हथियार बातें- साथ नहीं छोड़ेगी मेरा...........!
(ii) नाटकीयता:-
नागार्जुन की कविताओं में नाटकीयता का तत्व प्रमुख है। नागार्जुन की नाटकीय स्थितियों में जो द्वंद है, अंतविरोध है, यानी दो परस्पर विरोधी प्रवृत्तियों या तत्वों की उपस्थिति है, नागार्जुन उसे पकड़ने और अभिव्यक्त करने का प्रयास करते हैं। इसी कारण नाटक जैसा वातावरण बनता है क्योंकि यहां घात - प्रतिघात है, परस्पर द्वंद है। इसलिए उनका रचना - विधान भी भिन्न है, नाटकीयता से संपन्न जैसे इन पंक्तियों में-
नागार्जुन कहते हैं,
"नथुने फुला - फुला के
राह चलते - चलते, यक ब यक बांह पकड़ ली
खुद भी खड़े रहे, मुझे भी रोक लिया
और बोले क्या कुछ खास ही महसूस होती है
नथुने फुला - फुला के"
इस तरह नागार्जुन को जो भी कहना होता है, वह अपनी कविताओं नाटकों में स्पष्टता के साथ खोलकर कह देते हैं। नाटक का तत्व हमेशा ही कविता को सघन और संश्लिष्ट बनाता है। तभी स्थिति का पूरा नाटक उजागर होता है।
(iii) व्यंग्य:-
नागार्जुन की कविताओं में व्यंग्य स्पष्ट और तिलमिला देने वाला होता है। नागार्जुन का व्यंग्य भारतेंदुकालीन युग के व्यंग्यकारों से भी जुड़ता है। उन्होंने आज की व्यवस्था पर गहरा प्रहार किया है। नागार्जुन ने सबसे ज्यादा चोट राजनेताओं पर की और कई बार खुद अपने पर भी।
व्यंग्य के लिए द्वंद या अंतविरोध का होना जरूरी है। दो मूल्यों की टक्कराहट, दो परस्पर विरोधी या विपरीत स्थितियों की प्रस्तुति से व्यंग्य उत्पन्न होता है। कविता का रूप यानी शिल्प ऐसा होना चाहिए कि यह द्वंद या अंतविरोध सर्वाधिक तीव्रता से व्यक्त हो सके। नागार्जुन की परंपरिक द्वंद जब अंधविरोधी चरित्र वाली स्थिति को व्यक्त करते हैं जो एक तनाव उत्पन्न होता है जो व्यंग्य को धारदार बनाता है नागार्जुन रूप विधान का उपयोग जीवन की अराजक पक्ष को व्यक्त करने के लिए करते हैं। इससे बहुत गहरा व्यंग्य पैदा होता है।
नागार्जुन तिरंगे को पैदा करने के लिए अपनी समस्त शब्द विधा का प्रयोग करते हैं जैसे आए दिन बहार के स्पष्ट तर राजनीतिक व्यंग्य है समवेत स्थान रत्ना रखिया निहार के सिर कटी प्रभु की पग धूल झाड़ के लौटे हैं दिल्ली से कल टिकट मार के खिले हैं दांत जो दाने अनार के आए दिन बहार के इस बंद में उन नेताओं पर व्यंग्य है जो दिल्ली से टिकट मार कर लौटे हैं यह उनके लिए खुशी का क्षण है इस पर नागार्जुन देंगे करते हैं आए दिन बहार के जो प्रेमियों के लिए प्रिया दर्शन का शुक्रिया वसंत काल में वही इन नेताओं के लिए सुख है टिकट मारने में नागार्जुन सब कहते हैं प्रति हिंसा ही स्थाई पूर्ण भाव है इसलिए नागार्जुन स्थितियों के द्वंद और अंत विरोधी को उभार कर व्यंग्य की रचना करते हैं
(II) नागार्जुन के काव्य का रूप प्रयोग:-
छायावाद की हिंदी कविता में प्रगतिवाद और प्रयोगवाद दो प्रवृत्तियां आई। नागार्जुन घोषित रूप से प्रगतिवादी है। नागार्जुन की कविताओं में नए-नए रूप प्रयोग यानी नई बात तो हो ही नया रूप भी हो और इसके लिए नए प्रयोग किए जाएं
नागार्जुन ने अपने काव्य में छंद गद्य तथा पुराने से पुराने दोहों का इस्तेमाल किया और नवीनतम गध - शैली भी अपनायी। नए-नए वस्तु संयोजन द्वारा यथार्थ संबंधि परिवर्तन भी किए। अपनी बात को अधिकाधिक बल के साथ कहने के लिए या कविता के जरिए वह जो करना चाहते हैं, उसकी पूर्ति के लिए ही नागार्जुन नए रूपाकारों की रचना करते हैं।
डॉ रामविलास शर्मा कहते हैं- नागार्जुन ने लोकप्रियता और कलात्मक सौंदर्य के संतुलन और सामंजस्य की सम को बहुत ही सफलता से हल किया है। नागार्जुन के रूप प्रयोग कहीं भी क्लष्ट या समझ के बाहर नहीं है। उनकी रूप प्रयोग को साधारण लोग भी समझ सकते हैं।
नागार्जुन अपनी बात अधिक से अधिक लोगों तक अधिक से अधिक सुगम तरीके से पहुंचाना चाहते हैं। इसलिए उनका शिल्प ज्यादा खुला हुआ विविध और अपेक्षाकृत सरल है। इसलिए उनकी रचना विधान सफल है। सबसे सफल रचना- विधान अथवा शिल्प वही है जो सबसे अच्छे ढंग से विषय - वस्तु को अभिव्यक्त कर दे।
सारांश:-
नागार्जुन के रचना - विधान की सबसे बड़ी विशेषता है कि वह 'सरल' पर संश्लिष्ट है। उनकी कविता अधिक से अधिक लोगों को समझ में आने लायक है, जिसका कारण 'सरल' रचना विधान है। उनके बिंब भी सुगठित, मूर्त और स्पष्ट होते हैं।
(ग) फैंटेसी का स्वरूप स्पष्ट करते हुए मुक्तिबोध की कविताओं के विश्लेषण के संदर्भ में इसकी उपयोगिता का विवेचन कीजिए! (16)
उत्तर:- फैंटेसी का स्वरूप:-
मुक्तिबोध ने अपने काव्य - शिल्प में फेंटेसी के शिल्प को चुना था, जिससे मिथक, प्रतीक, रूपक, उपमा, बिंब आदि अभिव्यक्ति के विभिन्न उपकरण धूल मिलकर आए हैं! वस्तुत: "फैंटेसी" एक नया शब्द है, जो हिंदी का अपना न होकर अंग्रेजी का शब्द है।
फैंटेसी मूलतः मनोविश्लेषण शास्त्र से संबंध शब्द है, जिसकी व्याख्या स्वपन के संदर्भ में फ्राइड और युग ने की है। यद्यपि इन दोनों मनोविश्लेषणवादियों ने स्वपन से फैंटेसी को अलग करने का प्रयास किया है लेकिन युग ने "अभिप्रेरित चिंतन" के रूप में नियंत्रित सत्य के सामाजिक मानदंड के रूप में इसे स्वीकार किया है। क्रिस्टोफर काडवेल ने फैंटेसी को सौंदर्य या अच्छाई को स्वीकार किया है। फैंटेसी विवेक - प्रक्रिया द्वारा अनुशासित न होकर हृदय या मन द्वारा अनुशासित होती है।
मुक्तिबोध ने फैंटेसी को "संवेदनात्मक उद्देश्य" से नियंत्रित एक सक्रिय - सर्जनात्मक के रूप में ग्रहण किया है। "फैंटेसी डायनेमिक होती है। कला के प्रथम क्षण के अंतिम सिरे पर उत्पन्न होती ही उसकी गतिमानता शुरू हो जाती है। कला के प्रथम क्षण अर्थात "जीवन के उत्कट तीव्र अनुभव क्षण" के अंतिम सिरे और कला के दूसरे क्षण अर्थात सौंदर्यनुभूति के आरंभिक सिरे पर उत्पन्नन फैंटेसी वस्तुतः निवैयक्तिकता की ही एक स्थिति को संकेतिक करती है।
निवैयक्तिकता की यह स्थिति ही मुक्तिबोध द्वारा निरूपित कला का दूसरा क्षण अर्थात फैंटेसी का क्षण है, जिस के संबंध में मुक्तिबोध ने लिखा है "जी फैंटेसी अनुभव की व्यक्तिगत पीड़ा से स्वतंत्र होकर, अनुभव के भीतर की ही संवेदनाओं के द्वारा उत्सर्जित और प्रक्षेपित होगी वह एक अर्थ में वैयक्तिक होते हुए भी निवैयक्तिक होगी। उस फेंटेसी में अब एक भावनात्मक उद्देश्य की संगति आ जाएगी, इस संवेदनात्मक उद्देश्य को द्वारा ही वस्तुतः फैंटेसी को रूप - रंग मिलेगा।
फेंटेसी और जीवन के संबंध को स्पष्ट करते हुए मुक्तिबोध ने लिखा है, "फैंटेसी में प्रतिच्छायित जीवन - तथ्य फैंटेसी के अपने फ्रेम के अंग ही हो, यह आवश्यक नहीं। आवश्यक इतना ही है कि फैंटेसी के रंग जीवन - तथ्यों के रंग से मिलते - जुलते हो अथवा उन तथ्यों के रंग से अनुस्यूत हो"।
"तुम हो कौन और मैं क्या हूं
इसमें है क्या धरा सुनो,
मानस जलधि रहे चीर-चुम्बित,
मेरे क्षितिज उदार बनो"!
कवि प्रियतम और प्रेयसी के परस्पर संबंधों को प्रणय - तथ्य का उद्घाटन कर रहा है। इस फैंटेसी का ढांचा अध्यात्मवादी- रहस्यवादी है किंतु उसका मूल तथ्य प्रणय - तथ्य है।
कवि मुक्तिबोध का फैंटेसी स्वरूप हमें किसी स्वप्न लोक में नहीं ले जाती है। यह फैंटेसी हमारे अनुभव को अधिक वास्तविक ढंग से रखने का प्रयास करती है। स्वपन के भीतर स्वपन में कविता गतिमान है। व्यवस्था का आतंक और काव्य नायक का आत्म संघर्ष फैंटेसी को सधन और गहरा बनाते हैं।
मुक्तिबोध में 'फैंटेसी' है अर्थात एक जादुई कला में आधुनिक जीवन अनुभव की अभिव्यक्ति है। यथार्थ की सशक्त अभिव्यक्ति के लिए मुक्तिबोध फैंटेसी को एक सबल माध्यम बनाते हैं, इसके द्वारा वह युग के अंतविरोध को सजीव अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं।
फेंटेसी कविताओं के विश्लेषण के संदर्भ में:-
फैंटेसी के शिल्प की दृष्टि से "अंत: करण का आयतन" शीर्षक कविता के विश्लेषण द्वारा हम मुक्तिबोध की शिल्पगत विशेषताओं को समझ सकते हैं। अंतःकरण का आयतन कविता का आरंभ अत्यंत सहज, आत्मीय ढंग से, किंतु असंतोषपूर्ण आत्मस्वीकृति के माध्यम से इस प्रकार होता है। "अंतः करण का आयतन संक्षिप्त है
आत्मीयता के योग्य मैं सचमुच नहीं।"
आगे भी अंत तक काव्य नायक मैं के माध्यम से कविता आत्मकथन शैली में प्रस्तुत हुई है। काव्य नायक में आरंभ में ही अपनी "सर्वगामी छाया" के माध्यम से एक रहस्यमय वातावरण की सृष्टि करता है।
"पर क्या करूं यह छाँह मेरी सर्वगामी है।
हवाओं में अकेली सांवली बेचैन उड़ती है
कि श्यामल - अंचला के हाथ में
तब लाल कोमल फूल होता है
चमकता है अंधेरे में प्रदीपित द्वंद चेतस एक सत - चित वेदना का फूल उसको ले
न जाने कहां किन - किन सांकलो को
खटखटाती वह।"
यहां "सत - चित - वेदना का द्वंद चेतस फुल" रहस्य के आवरण में वास्तविकता का एक हल्का सा अभ्यास देने लगता है। यहां "द्वंद चेतस वेदना का प्रदीपित फुल" वस्तुतः द्वंदात्मक भौतिकवादी है, जिसके प्रकाश में काव्य - नायक की छाया अपनी यात्रा संपन्न करती है। फैंटेसी एक "संवेदनात्मक उद्देश्य" को लेकर गतिशील होती है। अतः फैंटेसी के विश्लेषण की प्रक्रिया में इनका भी विश्लेषण आवश्यक है।
दूसरी बात यह कि मुक्तिबोध एक क्रांतिकारी चेतना के कवि हैं। मुक्तिबोध नई कविता के आरंभिक कवि हैं। उनकी कविता में लंबे वाक्य होते हुए भी भावनात्मक और विचारात्मक ऊर्जा अटूट है, जैसे कई नैसगिक अतः स्रोत हो जो कभी चुकता ही नहीं बल्कि लगातार अधिकाधिक वेग और तीव्रता के साथ उमड़ता चला आता है। यह ऊर्जा अनेकानेक कल्पना - चित्रों और फैंटेसीयो का आकार ग्रहण कर लेती है। मुक्तिबोध क्रांतिकारी चेतना के कवि होने के कारण सामाजिक अंतविरोधी का ज्ञान मात्र ही सामाजिक क्रांति की शर्त नहीं है। उस पर और अधिक सोचने - विचारने तथा वैमनस्यपूर्ण अंतर्विरोध के निषेध के लिए "द्वंदात्मक निषेध" की वास्तविकता से परिचित होना और उसके अनुकूल वातावरण के निर्माण का प्रयास भी आवश्यक है। सामाजिक अंतविरोधी के "उर - विदारक शोर" से जागृत चेतना चिंताक्रांत होकर सोचने के लिए विवश करती है।
यहां "प्रतापी सूर्यो" की प्रवक्ता से उत्पन्न चिंताधारा के प्रति काव्य - नायक की प्रतिक्रिया है।
"मन में ग्लानि, गहन, विरक्ति, मिलती के बुरे चक्कर
भयानक क्षोभ
पीली धूल के बेदम बगुले, और
गंदे कागजों का मुनिसफल कचरा।"
वस्तुतः फैंटेसी के शिल्प की, यह विशेषता है कि उसमें विभाग - पक्ष को पर्दे में डाल दिया जाता है और कल्पना के माध्यम से उपमाओ प्रतीकों, रूपको, बिंबो आदि के सहारे संक्षेप में कहना चाहे तो काल्पनिक घटनाओं वस्तुओं, दृश्य आदि के सहारे केवल भाव या प्रभाव - पक्ष का चित्रण किया जाता है।
सर्वहारा की चेतना की विजय की घोषणा करते हुए मुक्तिबोध ने लिखा है," सब सूर्य फटेंगे व उनके केंद्र टूटेंगे।" "अंधेरे में" कविता में उन्होंने लिखा है:
"मुझे तो जिंदगी की सरहद
सूर्या के आंगन पार जाती सी दिखती है।"
इनका अभिप्राय है कि पूंजीवादी जीवन - दर्शन, कला - दर्शन संपूर्ण चिंतन प्रणाली कोई शाश्वत और अकाव्य नहीं है। अपने जनविरोधी स्वरूप के कारण उसकी समाप्ति आवश्यभावी है।
यहां मुक्तिबोध की फैंटेसी वर्तमान जीवन तथ्यों से निष्कर्ष ग्रहण कर एक भिन्न दिशा में प्रवृत्त होती है:
"मेरी छाँह सागर - तरंगों पर भागती जाती,
दिशाओं पर हल्के पाव, नाना देश - दृश्यों में
अजाने प्रियतरों का मौन चरण स्पर्श, वक्ष स्पर्श करती मुग्ध
घर में घूमती उनके,
लगाती लैंप, उनकी लौ बड़ी करती!"
इस तरह, फैंटेसी की यथार्थता रहस्यमयता पूरी तरह उद्घाटित हो जाती है। मुक्तिबोध ने लिखा है, "हर एक समस्या का एक समाधान है- चाहे अधूरा ही क्यों न सही। इसलिए मैं अपने आस-पास के लोगों, अपने मित्रों, आत्मा संबंधियो और अपने सहयोगियों तथा परिचितो मे उसे ढूंढने लगता हूं। और इस तरह मेरी छाया पृथ्वी पर भटकती रहती है।
कवि की वाचक आत्मछाया रूप फैंटेसी उन्मुक्त भाव से सहानु-भूतिपूर्ण कल्पना के सहारे समूचे विश्व का भ्रमण करती है। वह खेत - खलियानो, खदानों, पहाड़ों, घाटियों में विचरण करते हुए:
"सिखाती - सीखती रहती परखती, बहस करती और ढोती बोझ मेहनत से, जमीने साफ करती दिवालो की दरारें परती - भर्ती"!
इस प्रकार यह यात्रा सार्थक और सप्रयोजन है। मुक्तिबोध इस यथार्थ जगत को एक ममतामय अत्यंत आकर्षक रूप में देखते हैं।
"मुझको तो समूचा दृश्य धरती की सतह से उठ
अनावृत अंतरिक्षाकाश - स्थित दिखता
व उस आकाश में से बरसते मुझ पर
सुगंधित रंग - निर्झर और
छाती भीग जाती है, व आंखों में
उसी की रंग - लौ चमकती सी।"
इसे मुक्तिबोध ने "अपने ही जीवन के मूल स्रोतों का अमृत पान" और "युग की विवेक - चेतना बनने का मौन प्रयास" कहा है। अपनी संपूर्ण अच्छाइयों और बुराइयों के साथ पृथ्वी का यह दृश्य स्वर्गीय आभा से जगमगाता हुआ दिखाई देता है।
मुक्तिबोध का फैंटेसी एक नए स्वपन के रूप में उपस्थित होती है।
"रमणीयतम जो स्वपन देखा था
वही, हां वही
बिल्कुल सामने प्रत्यक्ष है"।
यह 'प्रतेजस आन्ना' कोई अन्य नहीं वरन काव्या - नायक मैं की अपनी "श्यामल अंचला" छाया ही है जो अंतबहिय और देश - देशांतर का परिभ्रमण करने के बाद "लावण्या से युक्त तेजस्विनी प्रतिभा" के रूप में उपस्थित हुई है।
मुक्तिबोध की रचना प्रक्रिया के विश्लेषण एक संदर्भ निर्माण से पूर्व ध्वंस के सौंदर्य से अभिभूत कवि का वाचक "मैं" प्रतेजस आन्ना से पूर्ण साक्षात्कार के लिए अंतर्गमन करता है। उसके रूप - स्वरूप का पूरा जायजा लेने के बाद एक नए बोध के साथ जब वह बाहर आता है तो:
"कि इतने में अचानक कान में फिर से,
नमोमय भूमिमय लहरा रहा सा"!!
मुक्तिबोध की रचना प्रक्रिया में शिल्प जिसके माध्यम से कला वास्तविकता को रूपायित करती है वह सामाजिक चेतना की अभिव्यक्ति की दूसरी प्रतिनिधियों या दूसरे अनुशासन और कला के मध्य किसी द्वंद विभाजन - रेखा का औचित्य सिद्ध नहीं करता बल्कि शिल्प की दृष्टि से कला का विश्लेषण करेंगे तो उसकी शक्ति और वेस्ट वैशिष्ट्य को समझने सकेंगे।
वस्तुतः यहां मुक्तिबोध ने एक चिंतक कलाकार के रूप में क्रांतिकारी शक्तियों को प्रति पूर्ण आत्म - समर्पण का भाव व्यक्त किया है। क्रांति के एक आयुध या शास्त्र के रूप में, एक साधक के रूप में वे अपने को क्रांतिकारी शक्तियों के हवाले कर देते हैं।
अन्यत्र फैंटेसी कि स्थिति को मुक्तिबोध ने निवैयक्तिकता की स्थिति के रूप में सौंदर्यानुभूति का वास्तविक क्षण माना है। इस क्षण में जहां आत्म पक्ष में तटस्थता होती है, वहीं परपक्ष के साथ गहन तन्मयता भी आ जाती है।
कला की रचना - प्रक्रिया के महत्व को रेखांकित करते हुए मुक्तिबोध ने मानव यथार्थ की, ठोस यथार्थ की कलात्मक अभिव्यक्ति की स्थिति को अत्यंत कुशलता से उद्घाटित किया है।
(घ) " रघुवीर सहाय अपने समय के आर - पार देखते कवि हैं।" इस कथन की समीक्षा कीजिए। (16)
उत्तर:- रघुवीर सहाय की कविता: विचारवस्तु के विविध आयाम:-
रघुवीर सहाय नई कविता के महत्वपूर्ण कवियों में से एक हैं। वे समकालीन हिंदी कविता के संवेदनशील कवि हैं। रघुवीर सहाय ने काव्य कला में अपना रास्ता स्वयं बनाने का सफल प्रयास किया है। रघुवीर सहाय ने दूसरा सप्तक में दिए गए अपने वक्तव्य में कहा था कि "विचारवस्तु का कविता में खून की तरह दौड़ते रहना कविता को जीवन और शक्ति देता है, और यह तभी संभव है जब हमारी कविता की जड़े यथार्थ में हो।" जिस तरह यथार्थ के विविध आयाम होते हैं उसी तरह यथार्थ को आधार बनाने वाली कविता भी बहुआयामी हो जाती है।
रघुवीर समय एक ऐसे रचनाकार के रूप में उभरे जिसने कविता की विचारवस्तु को अपने समय और समाज के यथार्थ से तो जोड़ा ही, वे अपने समय के आर-पार देख पाने में भी समर्थ हुए। रघुवीर सहाय को जब हम 'समय के आर-पार देखता हुआ कवि' कहते हैं तो उनकी विचारवस्तु में सबसे पहले उनकी समय की अवधारणा पर विचार करना उचित होगा।
(i) समय की अवधारणा:-
समय के बारे में रघुवीर सहाय की एक अवधारणा "सीढ़ियों पर धूप में" एक स्थान पर उन्होंने लिखा है।
"रचना के लिए किसी न किसी रूप में वर्तमान से पलायन आवश्यक है। कोई-कोई ही इस पलायन को सुरुचिपूर्वक निभा पाते हैं, अधिकतर लोग अतीत के गौरव में लौट जाने की भद्दी गलती कर बैठते हैं और यह भूल जाते हैं कि वर्तमान में मुक्त होने का प्रयोजन कालातीत होना है, मृत जीवन का भूत बनना नहीं।"
समय के आर - पार देखने की यानी कालातीत होने की या लेखनिया चाह रघुवीर सहाय के काव्य में भी व्यक्त होती है। इसका एक काव्यात्मक प्रयास 'घड़ी' शृंखला की तीसरी कविता में देखने को मिलता है। :-
"घड़ी नहीं कहती है 'डिग' जा अपने पथ से डीग जाने पर घड़ी नहीं कहती है 'धिक' और यह तो वह कभी नहीं कहती है, साथी 'ठीक' है वह कहती है टिक - टिक - टिक - टिक - टिक - टिक - टिक।"
यह टिकने का अहसास मेटाफिजिकल है, जिसके बगैर कोई भी रचनात्मक कर्म संभव नहीं है। टिक पाने की इस स्थिरत्व की इच्छा या समय के आर - पार जाने की इच्छा आधुनिक संदर्भ में समाज से जुड़े बगैर संभव नहीं है
रघुवीर सहाय जानते थे कि अमरता जनसमाज की प्रदान करता है और काल पर जाने के लिए अपने देश और समाज के अतीत, वर्तमान और भविष्य की चिंता करना संवेदनशील रचनाकार के बौद्धिक जीवन का अनिवार्य हिस्सा है।
(ii) कविता का वैचारिक आयाम:-
समय के आर - पार देखने के लिए एक 'विजन' या विचारधारात्मक दृष्टि की जरूरत पड़ती है। रघुवीर सहाय ने अपने श्रम और प्रतिभा से उस 'विजन' या उस 'विधा' को हासिल किया था, जो हमें मुक्त करती है।
रघुवीर सहाय ने भी अपने समय और समाज को काफी गहराई मे उतर कर देखा था। उन्होंने लिखा है," समाज की समझ का मतलब है, समाज में मनुष्य और मनुष्य के बीच जितने गैर इंसानी रिश्ते हैं उनकी समझ - कहां से वे पैदा होती है, इसकी समझ और उनकी जड़ों तक पहुंच इतिहास की समझ।"
रघुवीर सहाय यह भी मानते थे कि 'अगर इंसान और इंसान के बीच एक गैरबराबरी का रिश्ता है और उस रिश्ते को कोई आदमी मानता है कि ऐसे ही रहना चाहिए तो वह कोई रचना नहीं कर सकता, क्योंकि नाबराबरी की चेतना बने रहने से लोकतंत्र या जनवाद विकसित नहीं हो सकता, बल्कि अधिनायकवाद के पनपने के लिए जमीन तैयार होती है।
"आत्महत्या के विरूध्द' संकलन मे एक कविता 'अधिनायक' इसी ओर संकेत करती है:
"राष्ट्रगीत में भला कौन वह
भारत भाग्य विधाता है
फटा सूथनना पहले जिसका
गुन हरचना गाता है"
रघुवीर सहाय ने न्याय और बराबरी के जन्मजात आदर्श' को बहुत ही सूक्ष्म पर अपनी चेतना में आत्मसात किया था। उन्हें दया सहानुभूति और करुणा जैसे मानवीय भावो में भी कहीं न कहीं नाबराबरी और अभिजातिवादी अहं की गंध महसूस होती थी। दरअसल, कवि का समय के आर - पार देखने का यही अर्थ है।
आजादी के बीस वर्ष बाद भी जब समानता बंधुत्व और आजादी जैसे जनवादी मूल्यों से साधारण जन वंचित रहे तो उनका हृदय चित्कार कर उठा। उन्होंने लिखा है:
"बीस वर्ष
खो गए भरमें उपदेश में
एक पूरी पीढ़ी जन्मी पली पूसी क्लेश में
बेगानी हो गई अपने ही देश में"
रघुवीर सहाय की बहुत सी कविताएं अपने समय के आर-पार जाती हुई आज के यथार्थ ही रचनाएं बन जाती हैं। रघुवीर सहाय के पास ऐसा 'विजन' था ऐसी दृष्टि थी जिसमें वे यह समझते थे कि भारतीय आवाम पर राज बरकत रखने के लिए पूंजीवादी सामंती तत्वा धन का प्रभाव फैलाकर दलबदल की राजनीति को बढ़ावा देंगे जबकि दलबदल की यह राजनीति आकर्षक जनवादी नारो के तानेबाने और नए-नए वायदों के साथ देश पर हावी होगी।
भारतीय समाज पर जातिवाद कि इस कठिन जकड़बंदी को कवि ने गहराई से महसूस किया था। यह लोग हमारे संस्कारों का एक हिस्सा बन गया है इससे कथनी और करनी में भेद भी दिखाई देता है। इसी ओर संकेत करते हुए रघुवीर सहाय ने लिखा है: ...... बनिया - बनिया रहे
बाम्हन - बाम्हन और कायथ - कायथ रहे
पर जब कविता लिखे तो आधुनिक
हो जाए। खीसें बा दे जब कहो तब गा दे।
रघुवीर सहाय की कविताओं में अधिनायकवाद की एक और प्रवृत्ति पर भी चोट है वह है, अहंकार की प्रवृत्ति। यह अहंकार भी मनुष्य और मनुष्य के बीच नाबराबरी की भावना से ही पैदा होता है। रघुवीर सहाय ने मध्यवर्गीय समाज को यह अहसास दिलाया कि अकेले - अकेले रहकर अधिनायकवाद ताकदो से जीता नहीं जा सकता। रघुवीर सहाय ने स्पष्ट लिखा है कि खुलेआम जन - साधारण के बारे में लिखने का अहंकार करने वाले कवियों में भी अंह हो सकता है। रघुवीर सहाय अहंम को लिखते हैं:
"अद्वितीय हर एक है मनुष्य
औ उसका अधिकार अद्वितीय होने का
छीनकर जो खुद को अद्वितीय कहते हैं"
यहां 'कला' का अर्थ सिर्फ वही नहीं है जिसे हम समझते हैं, यहां काला चलाकी का भी पर्याय बन गई है। इसलिए कवि कहता है:
कला बदल सकती है क्या समाज?
नहीं जहां बहुत कला होगी परिवर्तन नहीं होगा।
रघुवीर सहाय ने साधारण जन की कला को 'कम से कम कला' बताया और शोषक वर्गों की कला या चलाकी को 'बहुत सी कला है वह' कहा। यही वह सहानुभूति संवेदना की नवीनता है जो उन्हें एक विशिष्ट रचनाकार ही नहीं, एक चिंतक भी बनाती है। इसलिए उन्हें हम समय के आर - पार देखता कवि कहते हैं। साथ ही वे नए दौर के दमन की महीन प्रक्रिया को बखूबी समझते थे। इस तरह रघुवीर की कविताओं में वैचारिक आयाम दिखाई देता है।
(iii) रचनात्मक लक्ष्य: जन पक्षधरता:-
रघुवीर सहाय मनुष्य और मनुष्य के बीच समानता और सामाजिक न्याय की लड़ाई के प्रति अपने को प्रतिश्रुत किए हुए थे, इसलिए वे ऐसे हर अमानवीय और क्रूर हरकत के खिलाफ आवाज उठाते थे, जिससे समानता और भाईचारे के जनवादी मूल्य खंडित होते थे।
रघुवीर अपनी कविताओं में लिखते हैं कि 'जिस तरह रचनात्मकता और आजादी एक ही मानवीय आकांक्षा के पर्याय है, उसी तरह समता की लड़ाई और कविता भी एक ही मानवीय उत्कर्ष के पर्याय है।' उनकी कविता का यही वैचारिक आधार था जिसने उन्हें समय के आर - पार देखता कवि या कालातीत रचनाकार बनाया है। अपनी इसी जनवादी आधारभूमि पर खड़े होने की वजह से वे तानाशाही के खिलाफ थे और राष्ट्रविरोधी हरकतों का पर्दाफाश कर रहे थे। 'सच क्या है' कविता में वे लिखते हैं:-
"इस झूठे करुणामय मन को धिक्कार है,
वह दुख ही सच्चा है जो हमने झेला है"।
इस तरह असमानता की गहरी चेतना को रघुवीर सहाय ने अपने समय और समाज में बुरी तरह फैला देखे थे। असमानता की चेतना सिर्फ यह जानने की कोशिश करती है कि जो मारा गया वह हिंदू था या मुसलमान या सिख, वह ऐसा नहीं सोचने देती कि जो मारा गया एक इंसान था। इसी को कविता में उन्होंने इस तरह प्रस्तुत किया है:
"हिंदू और सिख में, बंगाली और असमियो में,
पिछड़े और अगड़े में, पर इनसे बड़ी फूट
जो मारा जा रहा और जो बचा हुआ, उन दोनों में है"।
जब तक हमारे लोग इस खून में रचे - बसे भेदभाव की नहीं पहचानते, तब तक एक सभ्य और लोकतांत्रिक समाज की संरचना संभव नहीं होगी। आजादी का सपना साकार नहीं होगा। रघुवीर सहाय की काव्यदृष्टि में शुरू से अंत तक बनी रही और इसलिए वे शोषकवर्गों की पाखंडमयी सहानुभूति, करुणा, दया की धज्जियां उड़ाते रहे।
मनुष्य - मनुष्य के बीच समानता की भावना रखने वाले नए मानव की खोज रघुवीर सहाय का रचनात्मक लक्ष्य था। वे जीवन पर्यंत इसी नए मानव की खोज में लगे रहें। मूल्यों के स्तर पर बेहतर आदमी बनने की उनकी कामना से ही उनकी रचनात्मक को ऊर्जा मिलती थी। शोषित जन के प्रति सहानुभूति, करुणा, दया का अभिजात्यवादी पाखंड प्रदर्शित न करके वे उसे उसके खुद के संघर्षों के माध्यम से मुक्त होते देखना चाहते थे।
वे शोषित जन की हैसियत को इस समाज में जैसी है वैसी नहीं देखना चाहते थे। जहां भी नाबराबरी को अमल में आते देखते थे, वे अभिव्यक्ति के खतरे उठाकर भी बोलते थे। रघुवीर सहाय की पक्षधरता जिससे अनुशासित था उनका रचनाकर्म और इसी पक्षधरता के कारण वे समाज के आर - पार जाते हुए कवि थे। साहित्य और कला का इतिहास गवाह है कि जो कवि साधारण जन के, शोषित और दमित जन के पक्षधर रहे, वे ही कालातीत भी हुए।
(iv) नारी के प्रति दृष्टिकोण:-
रघुवीर सहाय की कविता में नारी की एक खास तरह का स्थान है। वे नारी को भी समतावादी दृष्टिकोण से ही देखना पसंद करते थे। हिंदी के ज्यादातर रचनाकार नारी को 'अबला' समझकर उसके प्रति 'दया' का भाव प्रदर्शित करते रहे हैं। परंतु रघुवीर दया के प्रदर्शन को हीन और असहाय मानते रहे। वे खुद को समर्थ, बड़ा बनाने की चेष्टा देते रहे। वे इस बात को समझते थे कि दया का भाव बराबरी के मूल्य पर चोट करता है।
जो नारीयाँ श्रम करती है उसके प्रति रघुवीर सहाय में समानता का भाव ही परिलक्षित होता है। नारी - पुरुष की समानता और सहधार्मिता के आदर्श को कवि ने इस प्रकार वाणी प्रदान की है:
"बंधु हम दोनों थके हैं
और थकते ही रहे तो साथ चलते भी रहेंगे"
औरतों के प्रति इस तरह की विनोदप्रियता का लहजा रघुवीर सहाय की बाद की कविताओं में नहीं मिलता, बल्कि उसमे नारी जाति की त्रासदी की एक अंतर्धारा बहती दिखती है। रघुवीर सहाय नारी की अंतश्चेतना में भी अपने समतावादी नजरिए से और यथार्थ की जमीन पर खड़े होकर प्रवेश करते हैं, यही उनकी विशेषता है।
(V) सारांश:-
(i) रघुवीर सहाय की कविता अपने समय का आलोचनात्मक साक्षात्कार करती है।
(ii) वे मानते हैं कि वर्तमान को सर्जना का विषय बनाने के लिए जरूरी है की रचनाकार वर्तमान से मुक्त हो।
(iii) रघुवीर सहाय अपने समाज की गहरी पहचान हासिल की थी इसलिए शोषक और शोषित की भी उन्हें खरी पहचान थी। शोषक वर्ग की चालबाजियों को उन्होंने बखूबी नंगा करने का प्रयत्न किया है।
(iv) मनुष्य और मनुष्य के बीच समानता और सामाजिक न्याय उनके रचनाकर्म का लक्ष्य रहा है।
(v) नारी के प्रति रघुवीर सहाय का दृष्टिकोण समता का रहा है समाज में नारी की स्थिति का उन्होंने बहुत ही मार्मिक चित्रण किया है।
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